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प्रो अ॒श्विना॒वव॑से कृणुध्वं॒ प्र पू॒षणं॒ स्वत॑वसो॒ हि सन्ति॑। अ॒द्वे॒षो विष्णु॒र्वात॑ ऋभु॒क्षा अच्छा॑ सु॒म्नाय॑ ववृतीय दे॒वान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pro aśvināv avase kṛṇudhvam pra pūṣaṇaṁ svatavaso hi santi | adveṣo viṣṇur vāta ṛbhukṣā acchā sumnāya vavṛtīya devān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रो इति॑। अ॒श्विनौ॑। अव॑से। कृ॒णु॒ध्व॒म्। प्र। पू॒षण॑म्। स्वत॑वसः। हि। सन्ति॑। अ॒द्वे॒षः। विष्णुः॑। वातः॑। ऋ॒भु॒क्षाः। अच्छ॑। सु॒म्नाय॑। व॒वृ॒ती॒य॒। दे॒वान् ॥ १.१८६.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:186» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अध्यापक और उपदेशकों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजा प्रजाजनो ! तुम जो (हि) ही (स्वतवसः) अपना बल रखनेवाले (अद्वेष) निर्वैर विद्वान् जन (सन्ति) हैं उनको जो (अश्विनौ) विद्याव्याप्त अध्यापक और उपदेशक मुख्य परीक्षक हैं वे विद्या की (अवसे) रक्षा, पढ़ाना, विचारना, उपदेश करना इत्यादि के लिये (प्र, कृणुध्वम्) अच्छे प्रकार नियत करें और जैसे (वातः) पवन के समान (विष्णुः) गुण व्याप्तिशील (ऋभुक्षाः) मेधावी मैं (सुम्नाय) सुख के लिये (देवान्) विद्वानों को (अच्छ, ववृतीय) अच्छा वर्त्ताऊँ वैसे तुम (पूषणम्) पुष्टि करनेवाले को (प्रो) उत्तमता से नियत करो ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो रागद्वेषरहित, विद्याप्रचार के प्रिय, पूरे शारीरिक-आत्मिक बलवाले धार्मिक विद्वान् हैं, उनको सब लोग विद्याप्रचार के लिये संस्थापन करें, जिससे सुख बढ़े ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाध्यापकोपदेशकविषयमाह ।

अन्वय:

हे राजप्रजाजना यूयं ये हि स्वतवसोऽद्वेषो विद्वांसस्सन्ति तान् यावश्विनावध्यापकोपदेशकौ मुख्यौ परीक्षकौ स्तस्तौ विद्याया अवसे प्रकृणुध्वम्। यथा वातइव विष्णुर्ऋभुक्षा अहं सुम्नाय देवानच्छ ववृतीय तथा यूयं पूषणं प्रो कृणुध्वम् ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रो) प्रकर्षे (अश्विनौ) विद्याव्याप्ताऽध्यापकोपदेशकौ (अवसे) रक्षणादिने (कृणुध्वम्) (प्र) (पूषणम्) पोषकम् (स्वतवसः) स्वकीयं तवो बलं येषान्ते (हि) निश्चये (सन्ति) (अद्वेषः) द्वेषभावरहिताः (विष्णुः) व्यापकः (वातः) वायुः (ऋभुक्षाः) मेधावी (अच्छ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (सुम्नाय) सुखाय (ववृतीय) वर्त्तेयम् (देवान्) विदुषः ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये रागद्वेषरहिता विद्याप्रचारप्रियाः पूर्णशरीरात्मबला धार्मिका विद्वांसः सन्ति तान् सर्वे विद्याप्रचाराय संस्थापयन्तु येन सुखं वर्द्धेत ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे रागद्वेष रहित, विद्याप्रचार प्रिय, पूर्ण शारीरिक आत्मिक बल असणारे धार्मिक विद्वान आहेत त्यांचे सर्व लोकांनी विद्याप्रचारासाठी संस्थापन करावे, ज्यामुळे सुख वाढावे. ॥ १० ॥